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महाभारत काल से जुड़ा है जितिया व्रत का रहस्य : संतान की दीर्घायु और मंगल के लिए अनुष्ठान
महाभारत और जीमूतवाहन कथा से जुड़ी लोकआस्था
जितिया व्रत आज भी मातृशक्ति के संकल्प और संस्कार का प्रतीक है
मुनादी लाइव विशेष : जैसा कि हमारे पाठकों को पता है, संतान की दीर्घायु और मंगलकामना के लिए जितिया व्रत आज से रखा जा रहा है। इस बार अलग-अलग पंचांगों के अनुसार व्रत की तारीख़ अलग बताई जा रही है। बनारस पंचांग के अनुसार यह व्रत 14 सितंबर से शुरू होकर15 सितंबर की सुबह समाप्त होगा।
जितिया व्रत की शुरुआत: महाभारत कालीन प्रसंग
पौराणिक मान्यता के अनुसार महाभारत युद्ध के दौरान आचार्य द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा अपने पिता की मृत्यु से बेहद व्यथित और क्रोधित थे। बदले की भावना में उन्होंने रात में पांडव शिविर में घुसकर पांच सोते हुए युवकों को पांडव समझकर मार डाला। लेकिन वे असल में द्रौपदी की पांच संतानें थीं।
इसके बाद अर्जुन ने अश्वत्थामा को बंदी बनाकर उनकी दिव्य मणि छीन ली। क्रोध में अश्वत्थामा ने अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे को नष्ट कर दिया। मगर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पुण्यों का फल देकर उस अजन्मे शिशु को पुनः गर्भ में जीवित कर दिया। गर्भ में मरकर पुनः जीवित होने के कारण उस बच्चे का नाम ‘जीवित्पुत्रिका’ पड़ा। कहा जाता है तभी से संतान की लंबी उम्र और मंगलकामना के लिए जितिया व्रत किया जाने लगा।
व्रत से जुड़ी पौराणिक कथा: जीमूतवाहन की त्यागमयी कहानी
प्राचीन काल में गन्धर्वराज जीमूतवाहन बड़े धर्मात्मा और त्यागी थे। युवावस्था में ही वे राजपाट छोड़कर वन में पिता की सेवा करने चले गए। भ्रमण के दौरान उनकी मुलाकात नागमाता से हुई जो विलाप कर रही थीं। उन्होंने बताया कि गरुड़ से बचने के लिए नागवंश ने प्रतिदिन एक नाग देने का वचन दिया है और आज उनके पुत्र की बारी है।
जीमूतवाहन ने नागमाता से वचन लिया कि वे उनके पुत्र को कुछ नहीं होने देंगे। उन्होंने नागपुत्र की जगह खुद को कपड़े में लपेटकर उस शिला पर लेटा दिया, जहां गरुड़ आहार लेने आता था। गरुड़ ने जीमूतवाहन को पंजों में दबाया और उड़ चला। कुछ दूर जाकर जब गरुड़ ने देखा कि आज शिकार शांत है, तो उसने कपड़ा हटाकर जीमूतवाहन को पाया। पूरी कहानी जानकर गरुड़ ने उन्हें छोड़ दिया और नागों को न खाने का वचन दिया।
व्रत का धार्मिक महत्व और आज की प्रासंगिकता
यह कथा त्याग, करुणा और संरक्षण की है। जितिया व्रत केवल संतान की दीर्घायु की प्रार्थना नहीं बल्कि धर्म, त्याग और साहस के मूल्यों की याद दिलाता है।
आज भी, विशेषकर बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई इलाकों में माताएं यह व्रत पूरी श्रद्धा से रखती हैं। बिना अन्न-जल के उपवास रखकर वे अपने बच्चों के स्वास्थ्य और लंबी उम्र की कामना करती हैं।