आजसू पार्टी के इस शर्मनाक प्रदर्शन के लिए जिम्मेदार और पार्टी का गद्दार कौन ? विश्लेषण जरूरी है.

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झारखंड में आजसू की पराजय: नेतृत्व की चूक या आंतरिक विघटन?

झारखंड में आजसू पार्टी की हार का विश्लेषण: कौन है जिम्मेदार और क्या है भविष्य की राह?

रांची,1 जून 2025 : झारखंड विधानसभा चुनाव में बेहद ही निराशजनक प्रदर्शन के साथ आजसू पार्टी उस मुहाने पर खड़ी है, जहां एक गहन समीक्षा होनी चाहिए। बहुत ईमानदारी से और नैतिकता के साथ। यह हर एक वैसे कैडर और पदाधिकारी के हित में होगा, जिन्होंने अपनी जिंदगी का लंबा समय पार्टी को दिया है। और उन्हें ये नतीजे परेशान करते दिख रहे हैं। पार्टी एक बड़े एलायंस का हिस्सा थी, लेकिन इसका लाभ उठाने में कहाँ चूक हो गई। उल्टा बीजेपी पर ही दोषारोपण किया जा रहा है। ठीकरा फोड़ने से नहीं होगा। जिम्मेदारी लेनी होगी.

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झारखंड विधानसभा चुनाव में आजसू पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन ने केवल एक राजनीतिक पराजय को नहीं दर्शाया, बल्कि उन लाखों कार्यकर्ताओं के आत्मविश्वास और भविष्य को गहरी चोट पहुंचाई है जिन्होंने अपना जीवन, समय और ऊर्जा पार्टी को मजबूत करने में समर्पित कर दिया। यह एक ऐसी हार है, जो सिर्फ सीटों की नहीं, बल्कि आस्था, भरोसे और नेतृत्व की विफलता की हार है। इस हार के बाद, सबसे अधिक आहत वे कार्यकर्ता हैं जिन्होंने झारखंड आंदोलन के दौर में अपने खून-पसीने से पार्टी को खड़ा किया। पार्टी नेतृत्व के ग़लत निर्णयों से और पार्टी की लगातार विफलता युवा कार्यकर्ता आहत हैं।

जनसंघर्ष से “प्राइवेट लिमिटेड” तक की यात्रा

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आजसू कभी जनसंघर्षों की आवाज हुआ करती थी। लेकिन आज एक सशक्त संगठन की बजाय एकल निर्णय लेने वाली प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के रूप में बदलती दिखी। कंपनी जहाँ निर्णयों में सामूहिकता की कोई जगह नहीं रही। केंद्रीय समिति, कार्यकारिणी, संसदीय बोर्ड, केंद्रीय महासभा, ज़िला समिति, विभिन्न सहयोगी संगठनों का सम्मेलन जैसे संस्थानों की औपचारिकताएं तो निभाई गईं, पर चुनाव जैसे महत्वपूर्ण समय में न ही इनसे सलाह ली गई, न ही जवाबदेही तय की गई। पार्टी के बड़े बड़े नेता चाहते हुए भी बैठकों में मुँह नहीं खोलना चाहते है। उन्हें अपने सम्मान खोने का डर रहता है। सच्चाई है की बड़े बड़े नेता कुछ बोलने से डरते है. चुनाव के बाद समीक्षा बैठक में हुए बर्ताव से दुखी झारखंड आंदोलन और पार्टी के मजबूत सिपाही स्वर्गीय कमल किशोर भगत की पत्नी नीरू शांति भगत को पार्टी छोड़ना पड़ा. लोहरदगा छोड़ किसी विधानसभा की समीक्षा नहीं की गईं. दोहरे मापदंड का कारण भी स्पष्ट करना चाहिए. नीरू शांति भगत अगर राज्य के मुखिया से मिलती है तो भरी बैठक में माफ़ी माँगना पड़ता है. दुर्भाग्य आंदोलनकारी का . ऐसे आंदोलनकारी जिन्होंने झारखंड बनने के बाद भी 6 वर्षों की सजा काटी. ऐसे आंदोलनकर्मियों इन्होंने झारखंड आंदोलन की लड़ाई के मामले में अपनी सदस्यता गवाई. शर्मनाक.

चुनावी रणनीति में चूक और मीडिया प्रबंधन की विफलता

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बीते विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन में आजसू पार्टी की 10 सीटों की हिस्सेदारी मिली, बीजेपी के बड़े नेताओं की मौजूदगी, पर्याप्त संसाधन, हेलीकॉप्टर – सब कुछ था। परंतु रणनीति, समन्वय और संवाद का अभाव पूरी तरह झलकता रहा। स्टार प्रचारकों की भूमिका नगण्य रही। मीडिया में पार्टी की बात रखने वाला कोई चेहरा सामने नहीं आया। यहाँ तक कि प्रमुख प्रवक्ता भी मीडिया से गायब दिखे। अगर जनता तक हमारी बात ही नहीं पहुँची, तो हम उनके समर्थन की उम्मीद कैसे कर सकते थे? पार्टी के बुद्धिजीवी मंच के अध्यक्ष डोमन सिंह मुंडा की एक भी सभा में उपस्थिति नहीं रही. सामाजिक नयाय की बात करने वाली हमारी पार्टी सीटो के गठबंधन में सामाजिक समीकरण का भी ख़याल भी नहीं रख पायी. हुसैनाबाद, बड़कागाँव, तमाड़ सीट इसके उदाहरण हैं. विरोधी परिवारवादी पार्टी का आरोप लगाते रहे हम इसका जवाब जनता को नहीं दे पाये. ज़िम्मेदारी किसकी है?

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नीतिगत असफलताएँ और संगठनात्मक दरारें

चुनावों के दौरान ही कई प्रमुख नेताओं ने दल छोड़ दिया। उनके दल छोड़ने के कारण संगठन में इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। पार्टी छोड़कर 15 से अधिक लोग अन्य दलों से या निर्दलीय चुनाव लड़े लोगो के मन में मलाल है कि उन्हें अंतिम समय तक अंधेरे में रखा गया अगर उन्हें समय पर आगाह किया जाता तो वो शायद चुनाव जीत जाते. उन्हें शीर्ष नेतृत्व द्वारा समझाकर चुनाव नहीं लड़ने देने का कोई प्रयास नहीं किया गया. वहीं बीजेपी के बड़े बड़े नेता सभी स्तर के बागियों के घर जाकर समझाने का प्रयास करते दिखे.

जिन चूल्हा प्रमुखों के भरोसे संगठन का ढांचा खड़ा हुआ, वही चुनाव के समय भ्रमित दिखे। संसाधनों और दिशा के अभाव में वे असहाय महसूस करते रहे। महाधिवेशन जैसे महत्वपूर्ण आयोजन में प्रदेश स्तरीय नेताओं को संबोधन का अवसर तक नहीं दिया गया। कैडर और नेताओं को बना दिया गया दर्शक और बाहर के आयातित ग़ैर राजनीतिक लोगों को ज्ञान देने के लिए बुलाया गया जो ना पार्टी को समझते हैं, ना झारखंड को और ना झारखंड के युवाओं को और ना झारखंड गटन के उद्देश्य को. पार्टी के प्रधान महासचिव, वरीय उपाध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव, सचिव, ज़िला अध्यक्ष की कोई भूमिका नहीं रही. यहाँ तक की प्रधान महासचिव को 5 मिनट भी नहीं बोलने दिया गया. बाक़ी नेताओं की क्या भूमिका रही होगी इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है. सभी बड़े नेता एक वेतनभोगी कर्मचारी की तरह बैठे रहे. जिनका वेतन दो वक्त का भोजन था. लोकतंत्र में सम्मान और स्वाभिमान केवल एक का नहीं बल्कि सभी का विशेषाधिकार है.

पार्टी द्वारा ठीक चुनाव से पहले धुर्वा में आयोजित युवाओं का कार्यक्रम भी असफल रहा। यह दावा किया गया था कि 5 लाख युवाओं से फॉर्म भरे जाएंगे और मुख्यमंत्री को सौंपे जाएँगे. लेकिन ये फॉर्म कुछ हज़ारो तक सिमट कर रह गया. मुख्यमंत्री को तो एक फॉर्म भी नहीं दिया गया. युवा से जुड़े इतने गंभीर मसले पर कोई रोड मैप नहीं. 2022 को जनधन योजना प्रारम्भ की गई थी और पार्टी का निर्णय था कि पार्टी के पदाधिकारी हर महीने एक निश्चित राशि पार्टी कोष में देंगे। एक भी पदाधिकारी ने इस निर्णय को नहीं माना. यहाँ तक की पार्टी अध्यक्ष, प्रधान महासचिव, प्रधान प्रवक्ता, सांसद, विधायक, पूर्व विषयक भी. यह एक स्पष्ट संदेश है कि या तो पार्टी दिशाविहीन है या नेतृत्व.

जयराम को किया नजरअंदाज

जयराम महतो के उभर में समझने में पार्टी नेतृत्व विफल रही. एक गरीबी और संघर्ष से उपजा युवा जो गिरिडीह संसदीय क्षेत्र से लगभग 3.5 लाख वोट लाए वहीं देवेंद्र महतो को रांची से लगभग 1.4 लाख वोट मिले।सिल्ली विधानसभा से लगभग 49000 वोट लाकर अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा दी थी . पार्टी उन्हें सड़क पर नाचने वाले की संज्ञा देती रही. कभी झाँशाराम की संज्ञा देती रही. किसी को झोंटा की उपाधि से नवाजते रहे. इसके अलावा सभी लोकसभा में दमदार उपस्थिति दर्ज करते हुए 8 लाख से अधिक वोट लाने में सफल रहे. हमारे शीर्ष नेता क्या कर रहे थे? जबकि देश और राज्य के बड़े छोटे मीडिया इसकी गंभीरता को लगातार प्रकाशित कर रहे थे.

5 जून को #Live_Hindustan ने लेख छापा “हार कर भी हीरो बन गए जयराम महतो”। लेकिन हम जयराम महतो के राजनीतिक उभार को समझ ही नहीं पाए। यह हमारी रणनीतिक विफलता थी। पढ़े लिखे लोगो के साथ रहेंगे तो पता चलेगा कि The Indian Express क्या कह रहा है।

https://www.livehindustan.com/jharkhand/story-jairam-mahato-became-hero-even-after-losing-lok-sabha-election-tension-for-nda-and-india-in-jharkhand-10155704.html

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Lallantop ने 16 मई 2024 को उसका इंटरव्यू लिया था, और 17 जून को #The_Indian_Express ने लेख छापा कि जयराम महतो एक उभरते हुए नेता के रूप में सामने आए हैं। कृपया देखिए। बड़े और छोटे सभी मीडिया ने इसे प्रमुखता से दिखाया।

नेतृत्व के निर्णय और ज़मीनी हकीकत में सामंजस्य जरूरी

लोकसभा चुनाव के बाद एनडीए के सभी घटक दलों को मंत्रिपरिषद में शामिल किया गया. यहाँ भी पार्टी विफल रही. विगत विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनावी घोषणा पत्र तक, हर महत्वपूर्ण निर्णय एक सीमित दायरे में हुआ। डुमरी, लोहरदगा जैसे क्षेत्रों में अंतिम समय तक उम्मीदवारों को लेकर असमंजस बना रहा, जिससे कैडर और स्थानीय नेतृत्व भ्रमित रहा। पाकुड़ और मनोहरपुर में उम्मीदवार चयन का पैमाने क्या था? ये सारे उदाहरण एक बात साफ करते हैं—नेतृत्व जमीनी सच्चाई से पूरी तरह कट चुका है। नेतृत्व के सभी निर्णयों ने ज़मीन पर भ्रम की स्थिति बना कर रखी, इसका नुकसान भारी पैमाने पर हुआ। जहाज़ की उड़ान से जमीन की लंबाई नहीं मापी जाती. सबसे हास्यास्पद की हार का ठीकरा बीजेपी पर और अन्य पर मढ़ा जा रहा है.

पार्टी नेतृत्व ने न तो हार की जिम्मेदारी ली, न ही कार्यकर्ताओं को यह बताया कि अब आगे क्या होगा? क्या पार्टी के पास कोई ब्लू प्रिंट है कि कैसे वह इन परिणामों से उबरकर भविष्य में कार्यकर्ताओं की भूमिका सुनिश्चित करेगी? क्या समर्पित कार्यकर्ताओं को सिर्फ चुनाव के समय मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जाएगा? कार्यकर्ताओं के लिए कोई भविष्य दृष्टि नहीं दिखाई पड़ी एक दशक या उससे भी लंबे समय में। बस वर्षों से एक लाइन जीरो से शुरू करेंगे. 32600 गांवो तक जाएँगे. वर्षों से संघर्ष कर रहे लोग जिन्हें दवा, फ़ीस, भोजन, शादी ब्याह की भी ज़िम्मेदारी वो कहाँ से शुरू करेंगे. वो तो नया साल और गर्मी विदेशों में नहीं बीता सकते है.

गुटबाजी और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा

चुनाव के पूरे प्रक्रिया में ग़ैर राजनीतिक लोग रणनीति बनाते दिखे. लगातार आयातित लोगो पर ज़्यादा भरोसा किया जाता रहा. 2014 का लोकसभा चुनाव हो या 2019 का विधानसभा चुनाव. आधे से अधिक प्रत्यासी अन्य दलों से आकर चुनाव लड़े और चले गए. पार्टी के नेताओं का मौका दिया जाना चाहिए था. यहाँ तक की सिल्ली जैसे महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठा की विधानसभा में भी पार्टी के विरोधी रहे आयातित लोगो पर ज़्यादा विश्वास और भरोसा किया गया।

सबसे बड़ी बात पार्टी अनुशासन और संस्कार से दूर होती चली गई. अंधभक्ति में लीन कार्यकर्ता सोशल मीडिया में गाली गलौज तक करने का दुस्साहस करने लगे. गाली गलौज तो एक शिष्टाचार बन गया. प्रतिष्ठा हनन तो एक परिपाटी बन चुकी है. सभा में वरीय लोगों को कुर्सी छोड़वाना. वो भी उनके लिए जिनका ना कोई योगदान, ना संघर्ष और ना ही राजनीतिक वजूद ना क़द. हाँ वैसे लोग धनवान जरूर होते हैं.

भविष्य की राह: आत्मचिंतन या विस्मरण?

परिवर्तन और सुधार की माँग सिर्फ सत्ता की नहीं, संगठन की भी होती है। संगठन कभी मरता नहीं है, न ही रुकता है। बस समय-समय पर मूल्यांकन ज़रूरी होता है। पहल कीजिए, करोड़ों उम्मीदें आज आपसे जुड़ी हैं।

लेखक हिमांशु कुमार राजनीतिज्ञ विश्लेषक है और झारखंड आंदोलन से जुड़े रहे हैं।

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