झारखंड: शहीदों की धरती या राजनीति का सगूफ़ा?

लेखक: हिमांशु कुमार
(झारखंड आंदोलनकारी, पूर्व आजसू नेता)

रांची : “झारखंड शहीदों की धरती है” — यह वाक्य हर राजनीतिक भाषण की शुरुआत में सुनाई देता है। सिद्धो-कान्हो, बिरसा मुंडा, शेख भिखारी, नीलांबर-पीतांबर, निर्मल महतो से लेकर बबलू मुर्मू और सुनील महतो तक, ये नाम हर दल के पोस्टरों पर तो दिख जाते हैं, लेकिन उनके विचार, उनका संघर्ष, उनकी कुर्बानी आज की राजनीति में कहीं गुम हो चुकी है।
राजनीति अब शहीदों के नाम पर केवल भावनात्मक दोहन का औजार बन गई है। उन्हें याद तो किया जाता है, लेकिन उनके बताए रास्ते पर चलने की न तो कोई मंशा है और न ही प्रेरणा देने की ईमानदार कोशिश।
अफसरशाही के जंगल में फंसा “जनतंत्र”
झारखंड की प्रशासनिक व्यवस्था की हकीकत देखकर कभी-कभी लगता है कि यह राज्य अब भी ब्रिटिश हुकूमत की परछाई में जी रहा है। फर्क बस इतना है कि अब अंग्रेज नहीं, अफसर कुर्सी पर बैठे हैं और जनप्रतिनिधि ‘सजावट’ के लिए।
ये राज्य आज भी ग़ुलाम भारत की तरह है जहाँ अंग्रेज़ अफ़सर अपनी सुविधा के अनुसार राज चलाते थे. झारखंड में IAS/IPS उसी भूमिका में हैं. IAS क्लब है, IPS क्लब/खुखरी क्लब है लेकिन विधायक क्लब नहीं है. जेल जा रहे हैं लेकिन चारागाह की तरह लूट रहे हैं.
“स्मार्ट सिटी” या आधुनिक चारागाह?
“स्मार्ट सिटी” विस्थापितों की जमीन पर अवैध तरीके से पदाधिकारियों और नेताओं के शाही निवास स्थान बन रहा है. वहाँ हर वो सुविधा तैयार हो रही है जो अंग्रेजों के जमाने में राजा और अंग्रेज पदाधिकारियों को उपलब्ध थी.

इन पदाधिकारियों का इतना मोटा चमड़ी है कि अपने जेल यात्रा करने वाले सह कर्मियों का हश्र देखकर भी नहीं सीखते हैं. उनके बच्चो का मोरल कितना हर्ट होता है ? उनके बच्चों से मिलकर देखना चाहिए. जब 25 साल में नहीं बदला तो अब क्या बदलेगा? राज्य का एक कल्चर जो बनना था बन चुका. राज्य पिछड़ापन के पैमाने में नीचे से पहले/दूसरे/तीसरे पायदान पर रहता है. शर्म नहीं आता है?!


भ्रष्टाचार का नया चेहरा: अफसर+राजनीति
ये इसी राज्य में संभव है की 20 साल पूर्व का एक सहायक अभियंता कई IAS अधिकारियों को अपने जेब में रखकर घूमता है. उसके इशारे के बिना पत्ता भी नहीं हिलता है यहाँ तक की बिल्डिंग और जमीन भी.
लूटो जमकर. बेवक़ूफ़ और मूर्ख राज्य बने रहिए. राजनेता माँस/मदिरा का आनंद लीजिए. रोम बनाइए राज्य को. केवल भाषण दीजिए की बाहरी लूट रहे हैं और ख़ुद साथ में बैठकर लुटिये. बस अपने फायदे के लोगो को बाहरी-भीतरी करके लड़ाइए. मस्त रहिए. ज़िंदगी ना मिलेगा दोबारा.
विचार कीजिए, अगर 25 वर्षों में यह तंत्र नहीं टूटा, तो अब क्या टूटेगा? यह ‘संस्कृति’ बन चुकी है—लूट की संस्कृति, चुप्पी की संस्कृति और जनता को बेवकूफ मानने की संस्कृति।
बाहरी-भीतरी का झूठा झुनझुना
राजनीति में अब जनता को गुमराह करने के लिए ‘बाहरी बनाम भीतरी’ की नौटंकी शुरू कर दी जाती है। लेकिन जब लूट का समय आता है, तो बाहरी-भीतरी मिलकर ‘राज्य की रग-रग’ चूस लेते हैं।
मदिरा, मांस, मॉल और मर्सिडीज—यही बन चुकी है सत्ता की नई परिभाषा। विकास, विस्थापन, रोजगार, शिक्षा—इन शब्दों का अब केवल दिखावटी उपयोग है, वास्तविक अर्थ तो खो चुके हैं।
हाय रे हमर सोना झारखंड
झारखंड, जो कभी शहीदों के लहू से सींचा गया था, आज राजनीतिक भाषणों और पोस्टरों की शोभा बनकर रह गया है। शहीदों की भूमि पर शहादत नहीं, भोग और विलास की राजनीति हो रही है।
अब वक्त है सवाल उठाने का—
क्या यही है हमारे सपनों का झारखंड?
