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बिहार में लोकतंत्र से बाहुबल तक: सत्ता और अपराध की कहानी

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पहले चुनाव से लेकर बाहुबली राज की जड़ों तक — बिहार की राजनीति का वह सफर, जिसने गांधी के अहिंसा वाले प्रदेश को बना दिया सत्ता और अपराध की रणभूमि।

आज़ादी और पहला चुनाव (1951)
बिहार: 25 अक्टूबर 1951 — यह वह ऐतिहासिक दिन था जब आज़ाद भारत के नागरिकों ने पहली बार खुद के लिए वोट डाला। तब पेटियों में सिर्फ वोट नहीं, बल्कि उम्मीदें बंद थीं। पर वही बिहार, जिसने आज़ादी की लड़ाई में गांधी, राजेंद्र बाबू और जे.बी. कृपलानी जैसे नायकों को जन्म दिया, कुछ दशकों में सत्ता संघर्ष का अखाड़ा बन गया।

लोकतंत्र की जड़ें और सामाजिक असमानता:
गुलामी के समय धर्म, जाति, लिंग और संपत्ति के आधार पर मतदान से वंचित लोग जब पहली बार वोट डालने पहुंचे, तो उन्हें ‘समानता’ का एहसास हुआ। लेकिन यह एहसास ज्यादा दिन तक टिक नहीं सका। 1957 में जब बिहार में दूसरा विधानसभा चुनाव हुआ, तब राजनीति में ‘जात’ और ‘कास्ट समीकरण’ का प्रभाव खुलकर सामने आने लगा।

अपराध और सत्ता का गठजोड़:
1960 और 70 के दशक तक बिहार में सत्ता के गलियारों में अपराधियों की एंट्री शुरू हो चुकी थी। चंपारण, सिवान, आरा, दरभंगा और गया जैसे जिलों में स्थानीय दबंग नेताओं के संरक्षक बन गए। यह वही दौर था जब चुनाव जीतने के लिए बंदूकें किराए पर ली जाती थीं और ‘वोट डालने’ की जगह ‘बूथ लूटने’ की राजनीति शुरू हो गई।

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चंपारण से जंगलराज तक का सफर:
महात्मा गांधी का सत्याग्रह स्थल — चंपारण — वही इलाका है जिसने अस्सी के दशक में ‘फुटानीबाज़ी’ की राजनीति को जन्म दिया। नेताओं ने बाहुबलियों को चुनाव जीतने का सबसे आसान रास्ता बना लिया। परिणामस्वरूप, लोकतंत्र की जगह ‘लोक डर’ ने ले ली।

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अस्सी और नब्बे के दशक में अपराध की राजनीति:
यह वह दौर था जब लालू-राबड़ी राज की शुरुआत हुई। सामाजिक न्याय के नाम पर राजनीति ने जातीय खांचे को और गहरा कर दिया। सत्ता में भागीदारी के साथ-साथ ‘जंगलराज’ का प्रतीक बना बिहार राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बन गया।
फिर चाहे वह शहाबुद्दीन, आनंद मोहन, सूरजभान सिंह, अनंत सिंह या पप्पू यादव हों — हर जिले से एक ‘राजा’ उभर आया।

लोकतंत्र का बदलता अर्थ:
जहां कभी जनता ‘जनप्रतिनिधि’ चुनती थी, अब बाहुबली अपने इलाके का ‘राजा’ खुद को घोषित करने लगे। वोटरों के लिए सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य के वादे अब बंदूकों की नली में समा गए।
राजनीति ‘जनसेवा’ से ‘गुंडागर्दी’ के रास्ते पर पहुंच गई।

आजादी के 75 साल बाद भी बिहार की राजनीति उस दौर के साये से पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाई है। अपराध और राजनीति का गठजोड़ भले कमजोर पड़ा हो, लेकिन उसकी जड़ें अब भी गहरी हैं। गांधी के सत्याग्रह की धरती से लेकर ‘जंगलराज’ के प्रतीक बने बिहार तक का यह सफर बताता है —

“लोकतंत्र सिर्फ संविधान से नहीं, बल्कि समाज की चेतना से जीवित रहता है।”

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